Sunday, July 31, 2016

क्या तकल्लुफ करे ये कहने में / जॉन एलिया


उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं

वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं 

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में 
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं 

है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी 
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं 

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद 
देखने वाले हाथ मलते हैं 

तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू 
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

Saturday, July 30, 2016

तुम तो अपने आप मे ही गुम रहते हो/ वसीम बरेलवी


तुम तो अपने आप मे ही गुम रहते हो 

तुमसे किसी का प्यार न समझा जायेगा


कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
 
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी...

.
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल ऩही,
 
तेरा होना भी नही और तेरा कहलाना भी..

वो अपने घर के दरीचों से झाँकता कम है / नवाज़ देवबंदी


वो अपने घर के दरीचों से झाँकता कम है
तअल्लुका़त तो अब भी हैं मगर राब्ता कम है

तुम उस खामोश तबीयत पे तंज़ मत करना
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है

बिला सबब ही मियाँ तुम उदास रहते हो
तुम्हारे घर से तो मस्जिद का फ़ासिला कम है

फ़िज़ूल तेज़ हवाओं को दोष देता है
उसे चराग़ जलाने का हौसला कम है

मैं अपने बच्चों की ख़ातिर ही जान दे देता
मगर ग़रीब की जां का मुआवज़ा कम है

वो रुलाकर हँस न पाया देर तक / नवाज़ देवबंदी


वो रुलाकर हँस न पाया देर तक
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक

भूलना चाहा अगर उस को कभी
और भी वो याद आया देर तक

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक

गुनगुनाता जा रहा था इक फ़क़ीर
धूप रहती है ना साया देर तक

बेताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हमको / शहरयार



बेताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हमको
आवारा हैं और दश्त का सौदा नहीं हमको

ग़ैरों की मोहब्बत पे यक़ीं आने लगा है
यारों से अगरचे कोई शिकवा नहीं हमको

नैरंगिए-दिल है कि तग़ाफुल का करिश्मा
क्या बात है जो मेरी तमन्ना नहीं हमको

या तेरे अलावा भी किसी शै की तलब है
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हमको

या तुम भी मदावाए-अलम कर नहीं सकते
या चारागरो फ़िक्रे-मुदावा नहीं हमको

यूँ बरहमिए-काकुले-इमरोज से खुश हैं
जैसे कि ख़्याले-रुख़े-फ़र्दा नहीं हमको

महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था / शहरयार


महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था
हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था

ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था
प्यासों के तअक्कुब* सुना दरिया गया था

आँखे हैं कि बस रौजने दीवार* हुई हैं
इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था

ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए
कल धूप तहफ्फुज* के लिए साया गया था

वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ
ये वक्त शबो-रोज* में जब बाँटा गया था

Tuesday, July 26, 2016

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं /अहमद फ़राज़


सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से 
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी 
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं 

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़ 
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है 
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं 

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें 
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी 
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं 

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है 
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं 

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं 
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं 

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी 
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं 

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में 
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में 
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं 

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं 
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं 

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं 
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं 

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का 
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं 

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त 
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं 

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं 
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं 

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे 
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही 
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं 

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ 
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं 

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं 

जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं 

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं 

तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं 

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं 

यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं 

न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं 

यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं 

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं

Monday, July 25, 2016

उम्मीदें..ख्वाहिशें..जरूरतें...जिम्मेदारियां.../Syed K



उम्मीदें..ख्वाहिशें..जरूरतें..जिम्मेदारियां,
बड़ा हुआ तब से मैं कभी अकेला नहीं रहा..।

आते आते मेरा नाम / वसीम बरेलवी



आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया

आते-आते मेरा नाम-सा रह गया 
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया

वो मेरे सामने ही गया और मैं 
रास्ते की तरह देखता रह गया

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये 
और मैं था कि सच बोलता रह गया

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे 
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया

Sunday, July 17, 2016

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं / शहरयार


ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है अहसास कहीं कुछ कम है


घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है


बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है


अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है


आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

Friday, July 15, 2016

बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है / शकील बँदायूनी


बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है
तरह तरह से वफ़ा आज़माई जाती है


जब उन को मेरी मुहब्बत का ऐतबार नहीं
तो झुका झुका के नज़र क्यों मिलाई जाती है


हमारे दिल का पता वो हमें नहीं देते
हमारी चीज़ हमीं से छुपाई जाती है


'शकील' दूरी-ए-मंज़िल से ना-उम्मीद न हो
मंजिल अब आ ही जाती है अब आ ही जाती है

Thursday, July 14, 2016

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / निदा फ़ाज़ली



कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
 
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता

Tuesday, July 12, 2016

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें / राहत इन्दौरी

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें / राहत इन्दौरी

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें|
जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें|

मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन,
जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें|

ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,
पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें|

ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो,
फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें|

ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर,
ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें|

हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को,
ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें|

आओ शहर में नये दोस्त बनायें "राहत"
आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें|

दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं / राहत इन्दौरी

दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं / राहत इन्दौरी 

दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं
सब अपने चेहरों पे दोहरी नका़ब रखते हैं

हमें चराग समझ कर बुझा न पाओगे
हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं

बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आश्ना भी नहीं
इसी में खुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं

ये मैकदा है, वो मस्जिद है, वो है बुत-खाना
कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं

हमारे शहर के मंजर न देख पायेंगे
यहाँ के लोग तो आँखों में ख्वाब रखते हैं

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो / बशीर बद्र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो / बशीर बद्र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़[1] दे मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त[2] भी अता[3] करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब[4] है चांदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चांदनी
न बुझे ख़राबे की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़[5] हो या विसाल[6] हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिल-ओ-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो

कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब[7] आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते / अहमद फ़राज़

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते / फ़राज़

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते 

उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते

Monday, July 11, 2016

शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई :Jaun Eliya



हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई 
शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई

एक ही हादसा तो है और वो यह के आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई

बाद भी तेरे जान-ए-जां दिल में रहा अजब समाँ
याद रही तेरी यां फिर तेरी याद भी गई

सैने ख्याल-ए-यार में की ना बसर शब्-ए-फिराक 
जबसे वो चांदना गया तबसे वो चांदनी गयी 

उसके बदन को दी नुमूद हमने सुखन में और फिर
उसके बदन के वास्ते एक कबा भी सी गयी

उसके उम्मीदे नाज़ का हमसे ये मान था की आप
उम्र गुज़ार दीजिये, उम्र गुज़ार दी गयी

उसके विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल की थी खराब और खराब की गई

तेरा फिराक़ जान-ए-जां ऐश था क्या मेरे लिए
यानी तेरे फिराक़ में खूब शराब पी गई

उसकी गली से उठके मैं आन पड़ा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गयी