Friday, September 9, 2016

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे / ज़फ़र गोरखपुरी


देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा[1] दिखाई दे

नेज़े[2] पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक[3]
सूरज-सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे


  1.  भीख माँगने का कटोरा
  2. ऊपर जायें भाला
  3. ऊपर जायें इंद्र-धनुष

Wednesday, August 31, 2016

अपने एहसास के सब रंग उतर जाने दो / Unknown

अपने एहसास के सब रंग उतर जाने दो, मेरी उम्मीद मेरे ख्वाब  बिखर जाने दो 
अपने आंगन में चिरागों को जलाओ अभी, मेरे आँगन सियाह रात उतर जाने दो


बड़ी मुश्किल से मिला है मेर घर का पता, रास्तो आज उलझो मुझे घर जाने दो
जिन के आने का बहुत शोर था फैला हर सू, उन ही लम्हो को यूं ही चुप-चाप गुज़र जाने दो



मेरी बर्बादी का इलज़ाम आये तुम पर, मेरे हालात को कुछ और बिगड़ जाने दो
शायद ये बहार--इश्क़ लहू मांग रहा है, रोको मुझे बीच भंवर जाने दो

Friday, August 26, 2016

तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या / जॉन एलिया


गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या 
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या

मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या

याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हें 
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या

बस मुझे यूँ ही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या 

अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं 
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या 

क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?

है फज़ा याँ की सोई-सोई सी 
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या

मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या?

दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक / ग़ालिब

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।


आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।


हम ने माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक।


ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।

कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
आह को चाहिए इक उम्र असर होने  तक।

सब्र-तलब = Desiring/Needing Patience
तग़ाफुल = Ignore/Neglect
जुज़ = Except/Other than
मर्ग = Death
शमा = Lamp/Candle
सहर = Dawn/Morning

Monday, August 22, 2016

आँख से दूर न हो / फ़राज़


आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जाएगा

किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो
मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा

ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा

डूबते-डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जाएगा

Monday, August 15, 2016

सोचा नहीं अच्छा बुरा / बशीर बद्र


सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा ख़ुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा तुझे, देखा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी वफ़ा मेरी ख़ता, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं

अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं

यूँ ही बेसबब न फिरा करो / बशीर बद्र


यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो 

वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो 

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से 
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो 

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा 
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो 

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ 
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो 

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में 
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो 

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है 
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो 

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं 
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

न जी भर के देखा न कुछ बात की / बशीर बद्र



न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की

सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की

मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की

सीने में जलन / शहरयार


सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है 
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है 


दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे 
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है 


तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है 


हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है


क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में 
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है 

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का / शहरयार

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का 
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का 


ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी 
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का 


ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे 
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का 


वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा 
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का 


ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गये साये 
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का 

Tuesday, August 2, 2016

उम्र भर जुल्फ-ए-मसाऐल यूँ ही सुलझाते रहे / अनवर जलालपुरी


उम्र भर जुल्फ-ए-मसाऐल यूँ ही सुलझाते रहे
दुसरों के वास्ते हम खुद को उलझाते रहे

हादसे उनके करीब आकर पलट जाते रहे
अपनी चादर देखकर जो पाँव फैलाते रहे

जब सबक़ सीखा तो सीखा दुश्मनों की बज़्म से
दोस्तों में रहके अपने दिल को बहलाते रहे

मुस्तक़िल चलते रहे जो मंज़िलों से जा मिले
हम नजूमी ही को अपना हाथ दिखलाते रहे

बा अमल लोगों ने मुस्तक़बिल को रौशन कर लिया
और हम माज़ी के क़िस्से रोज़ दोहराते रहे

जब भी तनहाई मिली हम अपने ग़म पे रो लिये
महफिलों में तो सदा हंसते रहे गाते रहे

ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है / अनवर जलालपुरी



ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है
वैसे अभी मरने का इरादा भी नहीं है

हर चेहरा किसी नक्श के मानिन्द उभर जाए
ये दिल का वरक़ इतना तो सादा भी नहीं है

वह शख़्स मेरा साथ न दे पाऐगा जिसका
दिल साफ नहीं ज़ेहन कुशादा भी नहीं है

जलता है चेरागों में लहू उनकी रगों का
जिस्मों पे कोई जिनके लेबादा भी नहीं है

घबरा के नहीं इस लिए मैं लौट पड़ा हूँ
आगे कोई मंज़िल कोई ज़ियादा भी नहीं

बेदिली क्या यूँ ही दिल गुज़र / जॉन एलिया

बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे 
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे

ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे

कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे

Sunday, July 31, 2016

क्या तकल्लुफ करे ये कहने में / जॉन एलिया


उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं

वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं 

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में 
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं 

है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी 
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं 

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद 
देखने वाले हाथ मलते हैं 

तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू 
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

Saturday, July 30, 2016

तुम तो अपने आप मे ही गुम रहते हो/ वसीम बरेलवी


तुम तो अपने आप मे ही गुम रहते हो 

तुमसे किसी का प्यार न समझा जायेगा


कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
 
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी...

.
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल ऩही,
 
तेरा होना भी नही और तेरा कहलाना भी..

वो अपने घर के दरीचों से झाँकता कम है / नवाज़ देवबंदी


वो अपने घर के दरीचों से झाँकता कम है
तअल्लुका़त तो अब भी हैं मगर राब्ता कम है

तुम उस खामोश तबीयत पे तंज़ मत करना
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है

बिला सबब ही मियाँ तुम उदास रहते हो
तुम्हारे घर से तो मस्जिद का फ़ासिला कम है

फ़िज़ूल तेज़ हवाओं को दोष देता है
उसे चराग़ जलाने का हौसला कम है

मैं अपने बच्चों की ख़ातिर ही जान दे देता
मगर ग़रीब की जां का मुआवज़ा कम है